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- हम नही सुधरेंगे नकलची......
Posted by : achhiduniya
23 March 2015
शिक्षा
ने एक बाजार का रूप ले लिया.......हो रही बिकाऊ.....
शिक्षा
के बिना जीवन की कल्पना करना उतना ही कठिन है जितना एक अंधे को लाठी और लँगड़े को बैसाखी
का सहारा न मिलता हो। जीवन मे शिक्षा का भी उतना ही महत्व है, लेकिन आज भारत की शिक्षा व्यवस्था में पढ़ाई का उद्देश्य समझना नहीं है,इम्तेहान में अंक लाना है।
मां-बाप, बच्चे और
अध्यापक सभी का ज़ोर परीक्षा की तैयारी पर रहता है जो सिर्फ अपने भविष्य को उज्वल करने
की कोशिश मे इस हद तक गिर जाते है की उन्हे परीक्षा मे पास ही नही अच्छे अंक पाने के
लिए किसी भी हद तक जाते है। जिसका सबसे अच्छा और सस्ता विकल्प नकल के रूप मे है। पाठ्यक्रम
बनाने वाले भी परीक्षा के दृष्टिकोण से ज्ञान की मात्रा तय करते हैं।
पुरातन समय मे
शिक्षा के लिए गुरुकुल होते थे जहा बिना किसी भेदभाव के राजा,प्रजा के बच्चो,युवाओ को ज्ञान से परिपूर्ण किया जाता
था। वही आज शिक्षा ने एक बाजार का रूप ले लिया है। किसी बच्चे के दाखिले के पूर्व हर
स्कूल कालेज के कुछ निर्धारित मूल्य होते है,जिसे डोनेशन के रूप
मे लिया जाता है। उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश के कुछ ज़िले ज़्यादा बड़े और व्यवस्थित केंद्र हैं।
इनमें कुछ परीक्षा केंद्रों की ठेकेदारी का चलन है।
दसवीं, बारहवीं
या विश्वविद्यालय की परीक्षाओं में पास होने के लिए दूर-दूर से छात्र इन केंद्रों
का रोल नंबर लेते हैं। परीक्षा में नक़ल
कराना या नक़ल के सहारे पास करना स्वयं एक असंगठित उद्योग है । पूरी हिंदी पट्टी
में इस उद्योग के केंद्र फैले हैं। परीक्षा में नक़ल की बीमारी हर साल मार्च के
महीने में ख़बर बनती है। ख़बर अक्सर इस अंदाज़ में दी जाती है कि बीमारी का ज़िक्र
चिंता पैदा करने की जगह लोगों का मनोरंजन करे। समस्या सिर्फ़ नक़ल करके
सफलता हासिल करने वाले छात्रों की नहीं है। भारत में परीक्षा-तंत्र पुलिस के सहारे
ही जीवित रह पाता है।
हिंदी पट्टी ही क्यों, समूचे
देश में वसंत के मौसम में परीक्षा पुलिस की एक बड़ी ज़िम्मेदारी बन जाती है। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र जैसे बड़ी आबादी वाले राज्यों ने कोई गंभीर प्रयास नहीं किया
है।
इस तरह देखें तो आप कह सकते हैं कि नक़ल की बीमारी का थोड़ा-बहुत इलाज जिन
स्कूलों में चल रहा है वहां भारत के अभिजात्य वर्ग या इलीट वर्ग के बच्चे पढ़ते
हैं।