- Back to Home »
- Suggestion / Opinion »
- अभिभावक सतर्क रहकर किशोरावस्था को खतरों से बचाएं….
Posted by : achhiduniya
20 March 2017
सभी
किशोर किसी कुचक्र में नहीं फंसते पर आशंका हर किसी के शिकार हो जाने की रहती है। उनके
दोस्त ही प्रकारांतर से दुश्मन बन जाते हैं और भविष्य बिगाड़ने का कारण बनते हैं। अच्छा
हो कि सभी अभिभावक इस संदर्भ में सतर्क रहें। आयु बढ़ने के साथ जीवनक्रम में नया मोड़ आता है। दस
से बीस वर्ष तक की आयु ऐसी है, जिसमें नए रक्त का उफान अधिक रहने
के कारण जोश बहुत रहता है पर अनुभव के अभाव में अपनी शारीरिक, मानसिक शक्तियों का कब, क्या, किस
प्रकार उपयोग किया जाए, इसका सुनियोजन नहीं होता। संपर्क में
जो व्यक्ति आता है, जैसी घटनाएं घटित होती दिखती हैं,
जिस स्तर के वातावरण में रहना पड़ता है। उसका चमकीला पक्ष उन्हें
आकर्षित कर लेता है। हवा के रुख उड़ने वाले पत्तो की तरह, किशोर भी उसी
प्रवाह में बह चलते हैं। इस प्रकार वे अपना व्यक्तित्व एवं भविष्य स्वयं नहीं
बनाते, वरन् परिस्थितियां उन्हें इधर-उधर घसीट ले जाती हैं।
किशोरों में कई आवारा गर्दी के अभ्यस्त होते हैं। वे शिक्षा में, स्वास्थ्य-संवर्धन में, गृह कार्य में हाथ बंटाने में अपना समय न लगाकर ऐसे कृत्यों में रुचि लेते हैं, जिनमें अनौचित्य का आकर्षक पक्ष उभरा रहता है। ऐसे कार्यो का मनोरंजन तब बनता है, जब उनके जैसे साथियों की मंडली बने। उनका प्रयास यह भी रहता है कि भोले किंतु उत्साही लड़कों से दोस्ती गांठें, उन्हें साथी बनाएं और घर से पैसे चुरा लाने की सलाह देने से लेकर अपने साथ दुर्व्यसनों में सम्मिलित करें। इस कुसंग में अनेक नवोदित किशोरों को कुटेवों का शिकार बनना पड़ता है और उस कारण उनके व्यक्तित्व की बुरी तरह बर्बादी होती है। अभिभावक उन पर पूरा ध्यान दे नहीं पाते। उन्हें इसके लिए समय का अभाव ही रहता है, फिर यह भी सोचते हैं कि बच्चा समझदार हो गया तो अपना भला-बुरा भी सोचता होगा। दुलार के कारण अविश्वास भी करते नहीं बन पड़ता चुपके-चुपके किशोरों को कुसंग का धुन खोखला करता रहता है। पता तब चलता है, जब शिकायतों के ढेर सामने आ खड़े होते हैं। उनके स्वभाव में बोए हुए कुसंस्कार बढ़कर विष वृक्ष के रूप में फलित होते हैं। किशोरों में उच्छृंखलता भी पाई जाती है। वे अपनी इच्छा, रुचि, आदत एवं कार्य-पद्धति को ही सब कुछ मानते हैं।
समझाने, रोकने पर अपमान समझते और प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर विवाद खड़ा करते हैं। इसी कहने-सुनने में कई बार तो घर से भाग जाने, पढ़ाई छोड़ बैठने जैसे विनाशकारी कदम उठा लेते हैं। उनके लिए समूचे परिवार को कष्ट होता है। बदनामी का कारण बनना पड़ता है तथा आर्थिक दृष्टि से हानि उठानी पड़ती है। समय बीतने पर तो ये लड़के पछताते भी हैं पर तब तक अवसर निकल चुका होता है। बुरी आदतें उन्हें इस तरह जकड़ चुकी होती हैं कि उनसे पीछा छुड़ा सकना भी संभव नहीं रहता। उन्हें ऐसे कामों में लगने का अवसर दिया जाए, जो सद्गुणों को विकसित करते हों, सत्प्रवृत्तियां उभारते हों। इससे उनका उत्साह, श्रम एवं समय ऐसे कायरें में लग सके जो संतोष एवं श्रेय प्रदान करें।
किशोरों में कई आवारा गर्दी के अभ्यस्त होते हैं। वे शिक्षा में, स्वास्थ्य-संवर्धन में, गृह कार्य में हाथ बंटाने में अपना समय न लगाकर ऐसे कृत्यों में रुचि लेते हैं, जिनमें अनौचित्य का आकर्षक पक्ष उभरा रहता है। ऐसे कार्यो का मनोरंजन तब बनता है, जब उनके जैसे साथियों की मंडली बने। उनका प्रयास यह भी रहता है कि भोले किंतु उत्साही लड़कों से दोस्ती गांठें, उन्हें साथी बनाएं और घर से पैसे चुरा लाने की सलाह देने से लेकर अपने साथ दुर्व्यसनों में सम्मिलित करें। इस कुसंग में अनेक नवोदित किशोरों को कुटेवों का शिकार बनना पड़ता है और उस कारण उनके व्यक्तित्व की बुरी तरह बर्बादी होती है। अभिभावक उन पर पूरा ध्यान दे नहीं पाते। उन्हें इसके लिए समय का अभाव ही रहता है, फिर यह भी सोचते हैं कि बच्चा समझदार हो गया तो अपना भला-बुरा भी सोचता होगा। दुलार के कारण अविश्वास भी करते नहीं बन पड़ता चुपके-चुपके किशोरों को कुसंग का धुन खोखला करता रहता है। पता तब चलता है, जब शिकायतों के ढेर सामने आ खड़े होते हैं। उनके स्वभाव में बोए हुए कुसंस्कार बढ़कर विष वृक्ष के रूप में फलित होते हैं। किशोरों में उच्छृंखलता भी पाई जाती है। वे अपनी इच्छा, रुचि, आदत एवं कार्य-पद्धति को ही सब कुछ मानते हैं।
समझाने, रोकने पर अपमान समझते और प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर विवाद खड़ा करते हैं। इसी कहने-सुनने में कई बार तो घर से भाग जाने, पढ़ाई छोड़ बैठने जैसे विनाशकारी कदम उठा लेते हैं। उनके लिए समूचे परिवार को कष्ट होता है। बदनामी का कारण बनना पड़ता है तथा आर्थिक दृष्टि से हानि उठानी पड़ती है। समय बीतने पर तो ये लड़के पछताते भी हैं पर तब तक अवसर निकल चुका होता है। बुरी आदतें उन्हें इस तरह जकड़ चुकी होती हैं कि उनसे पीछा छुड़ा सकना भी संभव नहीं रहता। उन्हें ऐसे कामों में लगने का अवसर दिया जाए, जो सद्गुणों को विकसित करते हों, सत्प्रवृत्तियां उभारते हों। इससे उनका उत्साह, श्रम एवं समय ऐसे कायरें में लग सके जो संतोष एवं श्रेय प्रदान करें।