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- पीलिया का इलाज दवाई से नहीं लाल चींटियों से......
Posted by : achhiduniya
18 February 2015
भोजन के साथ चापड़ा की चटनी,लाल चींटें खासतौर पर लजीज और औषधीय......
बस्तर के आदिवासी अंचल के ग्रामीण वर्षो से पीलिया होने पर चापड़ा से इलाज करते हैं। यही नहीं चापड़ा की चटनी का उपयोग करते हैं, साथ ही साथ पेट की बीमारियों सहित कंजक्टिवाइटिस का भी इसी से इलाज करते आ रहे हैं। बस्तर में पाए जानेवाली चींटी (चापड़ा) आदिवासी पीलिया पीड़ित मरीजों को डंक मारती है तो इनमें मौजूद बिलरूबिन (पित्तजनक) रासायनिक क्रिया के जरिए बिलुबर्डिन में बदल जाती है। इससे पीलिया मरीज के शरीर में पीलापन कुछ कम नजर आता है, यह बात शोध में सामने आई है।
बस्तर विश्वविद्यालय की एक शोधार्थी माधवी तिवारी बस्तर के आदिवासियों द्वारा चापड़ा चींटी से पीलिया का इलाज करने की मान्यता को परखने लिए शोध कर रही हैं। चापड़ा चींटी का वैज्ञानिक नाम इकोफिला स्मार्ग डिना है। बस्तर के आदिवासी शरीर के प्रमुख अंग लीवर को प्रभावित करने वाले -पीलिया- का इलाज दवाई से नहीं चींटियों से करते हैं। रक्तरस में पित्तरंजक (बिलरूबिन) नामक रंग होता है, जिसकी अधिकता से त्वचा और श्लेष्मिक कला में पीला रंग आ जाता है। इसी दशा को पीलिया कहते हैं। सामान्यत: रक्तरस में बिलरूबिन का स्तर एक प्रतिशत या इससे कम होता है,किंतु जब इसकी मात्रा 2.5 प्रतिशत के ऊपर हो जाती है तो पीलिया के लक्षण प्रकट होते हैं। शोधार्थी माधवी तिवारी बस्तर विश्वविद्यालय में शिक्षिका है।
उनका कहना है कि आदिवासी पीलिया का इलाज करने चापड़ा नामक चींटियों को पीड़ित मरीज के शरीर पर छोड़ते हैं। अध्ययन में पता चला है कि चापड़ा के डंक से शरीर में बनने वाले पिंग्नामेंटेशन का रंग बदल जाता है, जिससे शरीर में पीलापन कम होता दिखाई देता है। माधवी ने बस्तर के बड़ेमुरमा, गोलापल्ली और करंजी में सरपंचों के सहयोग से पीलिया पीड़ितों पर इसका प्रयोग किया है। अध्ययन के मुताबिक, इन चींटियों में फार्मिक एसिड होता है। जब पीलिया के मरीजों के शरीर में चीटिंयों को छोड़ा जाता है, तो इससे शरीर के पिग्मेंट में स्त्रोत होने वाले बिलरूबिन से ऑक्सीडेशन होते पाया गया है। बिलरूबिन रासायनिक क्रिया के जरिए विलुबर्डिन में बदल जाता है। इससे हरे रंग की अधिकता होती है। इसलिए पीलिया पीड़ित के शरीर में पीलापन कुछ समय कम नजर आता है।
वैसे बस्तर के आदिवासी चींटी का उपयोग कंजेक्टिवाइटिस, पेट की बीमारियों के लिए भी करते हैं। ज्ञात हो कि बस्तर के आदिवासियों के भोजन के साथ चापड़ा की चटनी (लाल चींटें) खासतौर पर लजीज और औषधीय मानी जाती है। ग्रामीणों में 'चापड़ा की चटनी' इतनी अधिक लोकप्रिय है,कि बस्तर के हाट-बाजारों में बेचा जाता है। ग्रामीणों में मान्यता है कि इस चापड़ा चटनी के सेवन से मलेरिया, डेंगू बुखार भी ठीक हो जाता है। बस्तर के जंगलों में लाल चींटों चापड़ा पेड़ों में पाए जाते हैं।
ग्रामीण जंगल जाकर पेड़ के नीचे, गमछा, कपड़ा आदि बिछाकर पेड़ की शाखाओं को हिलाते हैं, जिससे चापड़ा नीचे गिरते हैं और उन्हें इकट्ठा कर बाजार में बेचा जाता है या घर में चटनी के रूप में उपयोग किया जाता है। [ साभार ]
बस्तर के आदिवासी अंचल के ग्रामीण वर्षो से पीलिया होने पर चापड़ा से इलाज करते हैं। यही नहीं चापड़ा की चटनी का उपयोग करते हैं, साथ ही साथ पेट की बीमारियों सहित कंजक्टिवाइटिस का भी इसी से इलाज करते आ रहे हैं। बस्तर में पाए जानेवाली चींटी (चापड़ा) आदिवासी पीलिया पीड़ित मरीजों को डंक मारती है तो इनमें मौजूद बिलरूबिन (पित्तजनक) रासायनिक क्रिया के जरिए बिलुबर्डिन में बदल जाती है। इससे पीलिया मरीज के शरीर में पीलापन कुछ कम नजर आता है, यह बात शोध में सामने आई है।
बस्तर विश्वविद्यालय की एक शोधार्थी माधवी तिवारी बस्तर के आदिवासियों द्वारा चापड़ा चींटी से पीलिया का इलाज करने की मान्यता को परखने लिए शोध कर रही हैं। चापड़ा चींटी का वैज्ञानिक नाम इकोफिला स्मार्ग डिना है। बस्तर के आदिवासी शरीर के प्रमुख अंग लीवर को प्रभावित करने वाले -पीलिया- का इलाज दवाई से नहीं चींटियों से करते हैं। रक्तरस में पित्तरंजक (बिलरूबिन) नामक रंग होता है, जिसकी अधिकता से त्वचा और श्लेष्मिक कला में पीला रंग आ जाता है। इसी दशा को पीलिया कहते हैं। सामान्यत: रक्तरस में बिलरूबिन का स्तर एक प्रतिशत या इससे कम होता है,किंतु जब इसकी मात्रा 2.5 प्रतिशत के ऊपर हो जाती है तो पीलिया के लक्षण प्रकट होते हैं। शोधार्थी माधवी तिवारी बस्तर विश्वविद्यालय में शिक्षिका है।
उनका कहना है कि आदिवासी पीलिया का इलाज करने चापड़ा नामक चींटियों को पीड़ित मरीज के शरीर पर छोड़ते हैं। अध्ययन में पता चला है कि चापड़ा के डंक से शरीर में बनने वाले पिंग्नामेंटेशन का रंग बदल जाता है, जिससे शरीर में पीलापन कम होता दिखाई देता है। माधवी ने बस्तर के बड़ेमुरमा, गोलापल्ली और करंजी में सरपंचों के सहयोग से पीलिया पीड़ितों पर इसका प्रयोग किया है। अध्ययन के मुताबिक, इन चींटियों में फार्मिक एसिड होता है। जब पीलिया के मरीजों के शरीर में चीटिंयों को छोड़ा जाता है, तो इससे शरीर के पिग्मेंट में स्त्रोत होने वाले बिलरूबिन से ऑक्सीडेशन होते पाया गया है। बिलरूबिन रासायनिक क्रिया के जरिए विलुबर्डिन में बदल जाता है। इससे हरे रंग की अधिकता होती है। इसलिए पीलिया पीड़ित के शरीर में पीलापन कुछ समय कम नजर आता है।
वैसे बस्तर के आदिवासी चींटी का उपयोग कंजेक्टिवाइटिस, पेट की बीमारियों के लिए भी करते हैं। ज्ञात हो कि बस्तर के आदिवासियों के भोजन के साथ चापड़ा की चटनी (लाल चींटें) खासतौर पर लजीज और औषधीय मानी जाती है। ग्रामीणों में 'चापड़ा की चटनी' इतनी अधिक लोकप्रिय है,कि बस्तर के हाट-बाजारों में बेचा जाता है। ग्रामीणों में मान्यता है कि इस चापड़ा चटनी के सेवन से मलेरिया, डेंगू बुखार भी ठीक हो जाता है। बस्तर के जंगलों में लाल चींटों चापड़ा पेड़ों में पाए जाते हैं।
ग्रामीण जंगल जाकर पेड़ के नीचे, गमछा, कपड़ा आदि बिछाकर पेड़ की शाखाओं को हिलाते हैं, जिससे चापड़ा नीचे गिरते हैं और उन्हें इकट्ठा कर बाजार में बेचा जाता है या घर में चटनी के रूप में उपयोग किया जाता है। [ साभार ]