Posted by : achhiduniya 01 June 2016

हर पिता अपने पुत्र को नालायक ही मानता आया है। हर बुजुर्ग का यही सोचना है कि अपने समय में वह बहुत ही लायक, आज्ञाकारी और सुयोग्य था। यूं तो पीढियों का अंतर हमेशा से चला आया है। पुरानी पीढी हर नई पीढी से असंतुष्ट ही रहती आई है। बस आजकल के लडके-लडकियां ही बिगड गए हैं। भटक गए हैं। गलत रास्ते पर जा रहे हैं। क्या कभी हमने सोचने की कोशिश की है वास्तव में ऐसा ही है, और यदि ऐसा है तो दोषी कौन है..... ? याद कीजिए और सोचिए कि हमारे माता-पिता एवं अन्य बुजुर्ग हमें कितना समय देते थे। आज हम अपने बच्चों को कितना समय दे पाते हैं। जीवन दिन-प्रतिदिन अधिक जटिल होता जा रहा है। भागमभाग मची है। जिंदगी की रफ्तार तेज, और अधिक तेज होती जा रही है। आदमी सरपट दौडा जा रहा है। उसे रुकने और सांस लेने की भी फुर्सत नहीं है। ऐसे वातावरण में बच्चों का संपर्क अपने माता-पिता और विशेषकर पिता से कम से कम होता जा रहा है।
                                          
संयुक्त परिवार की परंपरा के ह्रास के साथ घर में अन्य बडे-बूढों के होने की संभावना लगभग नहीं के बराबर ही रहने लगी है। पति-पत्नी दोनों के नौकरी करने का चलन समय की मांग के अनुरूप बढता ही जा रहा है। ऐसे मेंबच्चे केवल पिता के सान्निध्य से ही नहीं वरन मां के आंचल की शीतल छाया से भी वंचित हो जाते हैं। घर का पूरा वातावरण महज मशीनी बनकर रह जाता है। एक और कोण से देखें, बहुत पीछे मत जाइए, बस अपने ही बचपन के समय की याद भर कर लीजिए। अपनी-अपनी मान्यता, आस्था, विश्‍वास, धारणा के अनुसार उस समय हर घर में भजन-पूजन, कथा-वार्ता, हवन-संध्या, व्रत-अनुष्ठान, आरती-कीर्तन, सत्संग आदि कुछ न कुछ अवश्य होता था। विचार-आचार सात्विक होता था। घर में पुस्तकें-पत्रिकाएं भी अच्छी ही आती थीं। आज भला हवन-संध्या, भजन-पूजन का समय ही किसके पास है। काम पर जाने की तैयारी से जो क्षण मिलते भी हैं वह समाचार पत्र और टीवी कार्यक्रमों की भेंट चढ जाते हैं। समाचार पत्र हो अथवा टीवी या रेडियो, मारधाड की खबरों से ही भरे रहते हैं। 
केबल टीवी के नित्य बढते चैनलों ने हमारे समय पर पूरा अधिकार जमा लिया है। मंदिर, सत्संग-स्थल तक जाने का समय और अवसर निकाल पाना असंभव ही हो जाता है। पत्र-पत्रिकाएं जो घर में आती हैं, वह या तो फिल्मी होती हैं अथवा सनसनीखेज र्मडर, डकैती, खून, बलात्कार आदि के विवरण से ओतप्रोत शाम का समय, छुट्टी का दिन हर परिवार का अब टीवी के सामने ही गुजारता है।  टीवी के विभिन्न चैनलों पर अब क्या परोसा जाता है, यह कहने या बताने की आवश्यकता तो नहीं ही है। इस बंधे-बंधाए रूटीन और जीवनक्रम को बदलने की आज कोई कल्पना भी नहीं कर सकता। बच्चों पर पारिवारिक संस्कारों और वातावरण का प्रभाव सर्वाधिक पडता है।  बच्चे जो कुछ घर में होता है, अपने माता-पिता को करते देखते हैं,उसी को ग्रहण करते एवं सीखते हैं और उसी को सही भी समझते हैं। ऐसे में यदि मां-बाप ही समय न दे पाएं, उनके आचरण पर निगाह न रख सकें, समय-समय पर उनको सलाह देने, उनका मार्गदर्शन करने, उनकी समस्याओं को सुलझाने, उनका समाधान करने का अपना मूल दायित्व न निभाएं तो दोष किसका......? त्रासदी यह है कि आज हमारी अपने ही बच्चों के साथ लगभग संवादहीनता की सी स्थिति बनी रहती है। 
बस हां-हूं और ना-नहीं भर से दोनों ओर से काम चला लिया जाता है। बातें तो हम बडी-बडी करते हैं। दूसरों को बाल मनोविज्ञान पर लंबे-लंबे भाषण भी देते हैं किंतु व्यवहारिक स्तर पर अपने निजी परिवेश में हम वह सब भूल जाते हैं। आप एक छोटा सा प्रयोग ही करके देखिए। किसी भी देवी-देवता, गुरु, महापुरुष, आराध्य जिस पर भी आपको श्रद्धा और निष्ठा हो, की एक प्रतिमा अथवा चित्र ले आइए। घर में किसी उचित स्थान पर उसे प्रतिष्ठित कर दीजिए। प्रात: स्नानादि के उपरांत वहां आंखें मूंद कर, हाथ जोडकर, आस्थापूर्वक बैठ जाइए अथवा खडे ही हो जाइए।  संभव है पहले पहल आपके युवा बेटा-बेटी नाक- भी सिकोडे., कटाक्ष करें, दबी जबान से व्यंग्य करें। आपके बुढापे की सनक कहें, मगर यह  दावे से कहा जा सकता है  कि कुछ ही रोज के बाद वे भी आपका अनुकरण करने लगेंगे। आप उन्हें भी आंखें मूंदे, हाथ जोडे, सिर झुकाए, सर्मपित भाव से वहां खडा पाएंगे। यदि हम ही उन्हें राह न दिखाएं, भटकने के लिए छोड दें तो दोष किसका..............?

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