Posted by : achhiduniya 06 April 2021

निरंजनी अखाड़ा के मुताबिक 2 लाख से ज्यादा नागा साधु देश भर में हैं। श्री दुखहरण हनुमान मंदिर में अखाड़ा धर्म ध्वजा के तले आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी अवधेशानंद गिरी के मुताबिक नागा साधुओं की दीक्षा एक धार्मिक प्रक्रिया है और हर साधु को नागा संन्यासी नही समझा जाना चाहिए, यह लंबी और कठिन यात्रा है। नागा साधु बनने की राह आसान नहीं है। हज़ारों साल पुरानी 

परंपराओं के हवाले से वर्तमान में इस प्रक्रिया के बारे में बताया जाता है कि अगर आपके भीतर संन्यासी जीवन की प्रबल इच्छा है तभी आप नागा साधु बन सकते हैं। महाकुंभ से ही यह प्रक्रिया शुरू होती है, जब देश भर के कुल 13 अखाड़ों में से किसी में रजिस्ट्रेशन करवाना होता है। इसके लिए शुरूआती पर्ची के तौर पर करीब 3500 रुपये का शुल्क होता है। तीन चरणों में यह प्रक्रिया संपन्न होती है। सबसे पहले नागा साधु बनने के इच्छुक को अपना ही पिंडदान करना होता है। इसके लिए पांच गुरुओं की ज़रूरत पड़ती 

है। हर गुरु को करीब 11000 रुपये की दक्षिणा देना होती है और फिर ब्राह्मण भोज भी करवाना होता है। इस प्रक्रिया में बताया जाता है कि करीब डेढ़ लाख रुपये तक का खर्च अगर शिष्य न उठा सके तो उसके गुरु के पास यह रकम देने का अधिकार होता है।# कितने तरह के होते हैं नागा? सालों के कड़े तप के बाद अर्जित शक्तियों के आधार पर अखाड़ा किसी साधु को सिद्ध दिगंबर की पदवी दे तो यह नागा साधु की सबसे बड़ी उपलब्धि मानी जाती है। इसके अलावा भी नागाओं के कई प्रकार होते हैं:- # हरिद्धार कुंभ में दीक्षित होने 

वाले नागाओं को बर्फानी कहते हैं, जो स्वभाव से शांत होते हैं।# प्रयाग कुंभ से दीक्षित नागा राजेश्वर कहलाते हैं क्योंकि ये संन्यास के बाद राजयोग की कामना रखते हैं।# उज्जैन कुंभ से दीक्षितों को खूनी नागा कहा जाता है क्योंकि इनका स्वभाव काफी उग्र होता है और नाशिक कुंभ में दीक्षा लेकर साधु बनने वाले खिचड़ी नागा कहलाते हैं। कहते हैं कि इनका कोई निश्चित स्वभाव नहीं होता। परंपराओं के अनुसार कुछ परिवार 10 से 12 महीने की उम्र में बच्चों को भेंट के तौर पर अखाड़ों 

में छोड़ जाते हैं। इसके बाद इन बच्चों का लालन पालन और शिक्षा आदि सब कुछ अखाड़ों में ही होता है। इन बच्चों को जीवन में अपने माता, पिता या परिवार के बारे में कुछ नहीं पता होता। इनके लिए सब कुछ इनके गुरु ही होते हैं। ये बच्चे अखाड़े के नियमानुसार स्कूल भी जा सकते हैं, लेकिन इनके जीवन का लक्ष्य साधु बनना ही होता है। शिष्य को गुरु के हाथों जनेऊ और कंठी धारण करवाई जाती है। गुरु ही शिष्य को दिगंबर होने के लिए प्रेरणा देते हैं। वास्तव में यह वस्त्र त्यागकर पूरी तरह प्रकृति में लीन हो 

जाने की परंपरा है। इसके बाद श्मशान से राख लेकर शरीर पर शृंगार के तौर पर मली जाती है, जिसके बाद पिंडदान संपन्न माना जाता है। इसके बाद दूसरे चरण में नागा साधु शिष्य बना सकता है, लेकिन पंच संस्कार नहीं करवा सकता। यह तीसरे चरण यानी सिद्ध दिगंबर के बाद संभव होता है।

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