- Back to Home »
- Knowledge / Science »
- फेरों का वैज्ञानिक कारण ........?
Posted by : achhiduniya
04 November 2014
सात फेरे….सात
वचन....सात जन्म.....
जन्म
जन्म का साथ है,तुमारा हमारा तुमारा हमारा अगर न मिलते इस जीवन मे लेते जन्म
दुबारा भारतीय विवाह प्रणाली में सात फेरों का अधिक महत्व है। आइए जाने ऐसा क्या है इन सात फेरों में--क्या कोई
वैज्ञानिक है कि जब तक सात फेरे पूरे नहीं हो जाते, तब
तक विवाह संस्कार पूरा हुआ नहीं माना जाता। न एक फेरा कम, न
एक फेरा अधिक।विवाह संस्कार आयोजनों में चार या पांच फेरों में ही काम चला लिया
जाता है, लेकिन जानकारों के अनुसार इस तरह के संस्कार सुखद
नहीं होते।धू को चेतना के हर स्तर पर एकरस और सामंजस्य से संपन्न कर देना है।
सात की संख्या मानव जीवन के लिए शरीर में ऊर्जा
पार्थिव और शक्ति आध्यात्मिकता के सात केंद्र हैं। इन्हें चक्र कहा जाता है यज्ञ
और संस्कार के वातावरण और विशिष्ट जनों की उपस्थिति में सात कदम एक साथ सातवें पद
या परिक्रमा में वर, कन्या एक दूसरे से कहते है हम दोनों अब
परस्पर सखा बन गए है ,निचे से शुरु हो कर ऊपर की ओर बढने पर इनकी स्थिति इस प्रकार
मानी गई है मूलाधार, शरीर के प्रारंभिक बिंदु पर स्वाधिष्ठान,
गुदास्थान से कुछ ऊपर मणिपुर, नाभिकेंद्र ,अनाहत,
हृदय,विशुद्ध, कंठ, आज्ञा ,ललाट, दोनों नेत्रों के मध्य में और सहस्रार हैं। उन्ही की तरह शरीर के भी सात
स्तर माने गए हैं। इनके नाम इस तरह हैं स्थूल शरीर, सूक्ष्म
शरीर, कारण शरीर, मानस शरीर, आत्मिक शरीर, दिव्य शरीर और ब्रह्म में उन शक्ति
केंद्रों और अस्तित्व की परतों या शरीर के गहनतम रूपों तक तादात्म्य बिठाने करने
का विधान रचा जाता है,
केवल शिक्षा नहीं, व्यावहारिक विज्ञान के रूप में। सात वचनों को संगीत के सात सुर, इंद्रधनुष के सात रंग, सात तल, सात समुन्द्र, सात ऋषि, सातों
लोकों आदि का उल्लेख किया जाता है। असल बात शरीर, मन और
आत्मा के स्तर पर एक्य स्थापित करना है
जिसे जन्म जन्मान्तर का साथ विवाह की परंपराओं में सात फेरों का एक चलन है। हिन्दू
धर्म के अनुसार सात फेरों के बाद ही शादी की रस्म पूर्ण होती है। सात फेरों में
दूल्हा व दुल्हन दोनों से सात वचन लिए जाते हैं। यह सात फेरे ही पति-पत्नी के
रिश्ते को सात जन्मों तक बांधते हैं। हिंदू विवाह संस्कार के अंतर्गत वर-वधू अग्नि
को साक्षी मानकर इसके चारों ओर घूमकर पति-पत्नी के रूप में एक साथ सुख से जीवन
बिताने के लिए प्रण करते हैं और इसी प्रक्रिया में दोनों सात फेरे लेते हैं,
जिसे सप्तपदी भी कहा जाता है।
यह सातों फेरे या पद सात वचन के साथ
लिए जाते हैं। हर फेरे का एक वचन होता है, जिसे पति-पत्नी
जीवनभर साथ निभाने का वादा करते हैं। यह सात फेरे ही हिन्दू विवाह की स्थिरता का
मुख्यवर के वाम अंग में बैठने से पूर्व उससे सात वचन लेती है। कन्या द्वारा वर से
लिए जाने वाले सात वचन इस प्रकार है।कहती है कि यदि आप कभी तीर्थयात्रा को जाओ तो
मुझे भी अपने संग लेकर जाना। कोई व्रत-उपवास अथवा अन्य धर्म कार्य आप करें तो आज
की भांति ही मुझे अपने वाम भाग में अवश्य स्थान दें। यदि आप इसे स्वीकार करते हैं
तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ। किसी भी प्रकार के धार्मिक कृ्त्यों
की पूर्णता हेतु पति के साथ पत्नि का होना अनिवार्य माना गया है। जिस धर्मानुष्ठान
को पति-पत्नि मिल कर करते हैं, वही सुखद फलदायक होता है।
पत्नि द्वारा इस वचन के माध्यम से धार्मिक कार्यों में पत्नि की सहभागिता, उसके महत्व को स्पष्ट किया गया है,पत्नि वचन मांगती है कि जिस प्रकार आप
अपने माता-पिता का सम्मान करते हैं, उसी प्रकार मेरे
माता-पिता का भी सम्मान करें तथा कुटुम्ब की मर्यादा के अनुसार धर्मानुष्ठान करते
हुए ईश्वर भक्त बने रहें तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ। यहाँ इस
वचन के द्वारा कन्या की दूरदृष्टि का आभास होता है।
आज समय और लोगों की सोच कुछ इस
प्रकार की हो चुकी है कि अमूमन देखने को मिलता है,गृहस्थ में किसी भी प्रकार के
आपसी वाद-विवाद की स्थिति उत्पन होने पर पति अपनी पत्नि के परिवार से या तो सम्बंध
कम कर देता है अथवा समाप्त कर देता है। उपरोक्त वचन को ध्यान में रखते हुए वर को
अपने ससुराल पक्ष के साथ सदव्यवहार के लिए अवश्य विचार करना चाहिएआप मुझे ये वचन
दें कि आप जीवन की तीनों अवस्थाओं युवावस्था, प्रौढावस्था,
वृद्धावस्था में मेरा पालन करते रहेंगे, तो ही
मैं आपके वामांग में आने को तैयार हु, कि अब तक आप घर-परिवार की चिन्ता से पूर्णत:
मुक्त थे। अब जबकि आप विवाह बंधन में बँधने जा रहे हैं तो भविष्य में परिवार की
समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति का दायित्व आपके कंधों पर है। यदि आप इस भार को वहन
करने की प्रतीज्ञा करें तो ही मैं आपके वामांग में आ सकती हूँ। इस वचन में कन्या
वर को भविष्य में उसके उतरदायित्वों के प्रति ध्यान आकृ्ष्ट करती है। विवाह पश्चात
कुटुम्ब पौषण हेतु पर्याप्त धन की आवश्यकता होती है। अब यदि पति पूरी तरह से धन के
विषय में पिता पर ही आश्रित रहे तो ऐसी स्थिति में गृहस्थी भला कैसे चल पाएगी।
इसलिए कन्या चाहती है कि पति पूर्ण रूप से आत्मनिर्भर होकर आर्थिक रूप से परिवारिक
आवश्यकताओं की पूर्ति में सक्षम हो सके। इस वचन द्वारा यह भी स्पष्ट किया गया है
कि पुत्र का विवाह तभी करना चाहिए जब वो अपने पैरों पर खडा हो, पर्याप्त मात्रा में धनार्जन करने लगे। वो आज के परिपेक्ष में अत्यंत
महत्व रखता है। वो कहती है कि अपने घर के कार्यों में, विवाहादि,
लेन-देन अथवा अन्य किसी हेतु खर्च करते समय यदि आप मेरी भी मन्त्रणा
लिया करें तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ। यह वचन पूरी तरह से पत्नि
के अधिकारों को रेखांकित करता है। बहुत से व्यक्ति किसी भी प्रकार के कार्य में
पत्नी से सलाह करना आवश्यक नहीं समझते। अब यदि किसी भी कार्य को करने से पूर्व
पत्नी से मंत्रणा कर ली जाए तो इससे पत्नी का सम्मान तो बढता ही है, साथ साथ अपने अधिकारों के प्रति संतुष्टि का भी आभास होता.
=+=पंडित मुरलीघर
शर्मा जी के व्याखयान पत्र द्वारा.