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- परशुराम ने अपना धनुष्य रामको .....
Posted by : achhiduniya
24 January 2015
भगवान परशुराम .......
एक समय (दशरथपुत्र) रामकी कीर्तिके
संदर्भमें सुनकर उनके पराक्रमकी परीक्षा लेने हेतु परशुराम उनके मार्ग में आए एवं
अपना धनुष्य राम के हाथों में देकर उनसे कहा कि उसे झुकाते हुए बाण लगाकर दिखाएं ।
राम ने वैसा ही किया एवं पूछा कि यह बाण कहांपर लगाना है । परशुरामने रामसे कहा,
इस (काश्यपी) भूमिपर मेरी जो गति है उसे निरुद्ध करें’ । परशुरामके
ऐसा कहनेपर रामने वैसा किया । इस अवसरपर परशुराम ने अपना धनुष्य रामको दे डाला ।
इस प्रकार धनुष्य देकर परशुरामने राम में अपना क्षात्रतेज प्रक्षेपित किया । एक
बार शस्त्र नीचे रखनेपर परशुरामने क्षत्रियोंके साथ शत्रुता समाप्त कर ब्राह्मण
तथा क्षत्रिय सभी लोगोंको समभावसे अस्त्र-शस्त्रविद्या सिखाना आरंभ किया ।
महाभारतके भीष्माचार्य, द्रोणाचार्य इत्यादि महान योद्धे
परशुरामके ही शिष्य थे ।
परशुराम राजा प्रसेनजीत की पुत्री रेणुका और भृगुवंशीय
ऋषि जमदग्नि के पुत्र, विष्णुके अवतार और शिव के परम भक्त थे
। इन्हें शिवसे विशेष परशु प्राप्त हुआ था । इनका नाम राम था, किन्तु शंकरद्वारा प्रदत्त अमोघ परशुको सदैव धारण कर रखनेके कारण ये
परशुराम कहलाते थे । विष्णु के दस अवतारों में से छठा अवतार, जो वामन एवं रामचन्द्र के मध्य में गिना जाता है । इनका जन्म वैशाख शुक्ल
तृतीयाको हुआ था । अत: इस दिन परशुराम जयंती एक व्रत और उत्सवके रूपमें मनाई जाती
है । वाल्मीकिजीने उसको `क्षत्रविमर्दन’ न कहते हुए `राजविमर्दन’ कहा है ।
इसलिए हम कह सकते हैं कि परशुरामने पूरे
क्षत्रियोंका संहार नहीं किया, अपितु दुष्ट-दुर्जन क्षत्रिय
राजाओंका संहार किया । कार्तवीर्यने जमदग्नि ऋषिके आश्रमसे कामधेनु तथा उसके
बछडेको अगुवा किया । उस समय परशुरामजी वहां नहीं थे । वापस आनेपर जैसे ही उन्हें
यह बात समझमें आयी, उन्होंने कार्तवीर्यका वध करनेकी शपथ ली
। नर्मदा नदीके किनारेपर उन दोनोंमें द्वंद्वयुद्ध हुआ, जिसमें
परशुरामने उसका वध किया । तत्पश्चात अपने पिता जमदग्निकी आज्ञाके अनुसार वे
तीर्थयात्रा एवं तपस्या करने निकल पडे । परशुरामके
जानेके पश्चात कार्तवीर्यके वधका प्रतिशोध लेने हेतु उन्होंने जमदग्नि ऋषिका सिर
देहसे अलग कर उनकी हत्या की । यह समाचार ज्ञात होते ही परशुरामजी आश्रममें पहुंचे
। जमदग्निकी देहपर हुए इक्कीस घावोंको देखकर उसी क्षण उन्होंने शपथ लेते हुए कहा
कि `हैहय एवं अन्य अधम क्षत्रियोंद्वारा की गई ब्रह्महत्याके
दंडस्वरूप पृथ्वीको इक्कीस बार नि:क्षत्रिय करूंगा ।’
इस शपथके अनुसार उन्होंने
उन्मत्त क्षत्रियोंका नाश करना, युद्ध समाप्त होनेपर महेंद्र
पर्वतपर जाना, क्षत्रिय उन्मत्त हुए तो पुनः उनको नष्ट करना
ऐसे इक्कीस उपक्रम किए । समंतपंचकामें अंतिम युद्ध कर उन्होंने अपना रक्तरंजित
परशु धोया एवं शस्त्र नीचे रखा । चार वेद मौखिक हैं अर्थात पूर्ण ज्ञान हैं एवं
पीठपर धनुष्य-बाण हैं अर्थात शौर्य है । अर्थात यहां ब्राह्मतेज एवं क्षात्रतेज,
दोनों हैं । जो कोई इनका विरोध करेगा, उसे शाप
देकर अथवा बाणसे परशुराम पराजित करेंगे, ऐसी उनकी विशेषता है
। परशुरामने क्षत्रियोंका वध करने हेतु जो उपक्रम किए, उससे
उन्हें संपूर्ण पृथ्वीपर स्वामित्व मिला, उन्हें अश्वमेध
यज्ञका अधिकार प्राप्त हुआ तथा उन्होंने अश्वमेध यज्ञ किया । परशुरामने यज्ञके
अंतमें इस यज्ञके अध्वर्यु कश्यपको पूरी भूमि दान की ।जबतक परशुराम इस भूमिपर हैं,
तबतक क्षत्रिय कुलका उत्कर्ष नहीं होगा, यह
जानकर कश्यपने परशुरामसे कहा, `अब इस भूमिपर मेरा अधिकार है
। तुम्हें यहां रहनेका भी अधिकार नहीं है ।’
तदुपरांत परशुरामने समुद्र हटाकर अपना
क्षेत्र उत्पन्न किया । वैतरणीसे कन्याकुमारीतकके भूभागको `परशुरामक्षेत्र’की
संज्ञा दी गई है । परशुराम सप्तचिरंजीवोंमें एक हैं । सह्याद्रिके उत्तर अग्रपर
साल्हेरके पर्वतके मध्ययुगीन गढपर, पंजाबमें कांगडा जिलेमें,
कोकणमें चिपलूणसे पांच मीलकी दूरीपर एक पर्वतपर तथा गोमंतकमें
कानकोनमें परशुरामका एक प्राचीन मंदिर है । परशुराम विष्णुके अवतार हैं, इसलिए उन्हें उपास्य देवता मानकर पूजा जाता है । वैशाख शुक्ल तृतीयाकी
परशुराम जयंती एक व्रत और उत्सवके रूपमें मनाई जाती है ।