Posted by : achhiduniya 31 July 2019


भारत, मध्य पूर्व, यूरोप और अफ्रीका के कई हिस्सों में धूप, बारिश और ठंडी हवाओं से बचने के लिए पग पहनने का चलन शुरू हुआ था। कुछ इलाकों में केवल आस्थावानों को पग पहनने की इजाज़त थी तो कुछ इलाकों में अलग संस्कृति के चलते नास्तिकों को अलग रंग की पग पहनने की व्यवस्था रही।  उदाहरण के लिए आठवीं सदी में इजिप्ट और सीरिया में ईसाई नीली, यहूदी पीली और समारी लाल जबकि मुस्लिम सामान्य तौर से सफेद पगड़ी पहना करते थे। 16वीं सदी में मुग़ल साम्राज्य से पहले भारत में, सामान्य तौर पर केवल शाही परिवारों या उच्च अधिकारियों को ही पगड़ी पहनने की इजाज़त रही थी। ये सामाजिक प्रतिष्ठा और उच्च वर्ग का प्रतीक था। खास तौर से हिंदू संप्रदाय में, निम्न मानी जाने वाली जातियों को पगड़ी पहनने की इजाज़त नहीं थी। 
 इस्लामी शासन में इस व्यवस्था में बदलाव शुरू हुआ। बाद में, जब औरंगज़ेब का शासन काल आया तब एक खास आबादी को अलग पहचानने के लिए इस पगड़ी का इस्तेमाल शुरू हुआ। औरंगज़ेब ने गैर मुस्लिमों, खास तौर से सिखों की आबादी को पहचानने के लिए पगड़ी की व्यवस्था की। औरंगज़ेब ने जब सिखों के गुरु तेग बहादुर को मौत के घाट उतारा, तब उनके बेटे गोबिंद ने खालसा पंथ की स्थापना की और सिखों के लिए पग पहनना अनिवार्य किया। ये पग शासन के विरोध के साथ ही, सिखों की आज़ादी और समानता का प्रतीक बनी। सिखों की पहली और प्रमुख पहचान उनकी पगड़ी होती है, जिसे पग भी कहा जाता है। सिर्फ उत्तर भारत ही नहीं बल्कि पूरे देश और दुनिया के कई हिस्सों में सिखों की खासी आबादी इस पगड़ी की वजह से अलग पहचानी जाती है और समय समय पर इस पगड़ी को लेकर विवाद से भी दो-चार होती है। 
सिखों की पगड़ी जैसी आज है, क्या हमेशा से वैसी ही रही है? कैसे ये पग सिखों की पहचान बनती चली गई? इन तमाम सवालों के जवाब में इतिहास की परतें खंगालती एक किताब प्रकाशित हुई है, जिसमें दावा किया गया है कि पगड़ी का इतिहास करीब 4 हज़ार साल पुराना है और दुनिया की कई सभ्यताओं में फैला हुआ है। अमित अमीन और नरूप झूटी लिखित किताब 'टर्बन्स एंड टेल्स' के कुछ अंशों के ज़रिये आप ये समझ सकते हैं कि पगड़ी कैसे सिखों की विकास यात्रा में रूप और आकार बदलकर वर्तमान स्वरूप तक पहुंची। इस किताब के मुताबिक़ पगड़ी की ठीक ठीक शुरूआत को लेकर कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है, लेकिन पगड़ी जैसा एक पहनावा 2350 ईसा पूर्व में एक शाही मैसोपोटामियन शिल्प में दिखाई देता है। माना जाता है कि इस पहनावे का यह सबसे पहले का नमूना है। ये भी समझा जाता है कि अब्राहमी धर्मों से पहले भी यह पहनावा प्रचलित था। 
1845 में जब पंजाब में ब्रितानिया हुकूमत ने पैठ बनाई तब पगड़ी के चलन में कई बदलावों का सिलसिला शुरू हुआ। पहले पग को सिख सिपाहियों को अलग करने के लिए इस्तेमाल किया गया। अंग्रेज़ों को सलीक़ा पसंद था इसलिए उन्होंने एक ख़ास आकार और सिमिट्री वाली पग का चलन शुरू किया। शुरूआत में ये पग केन्याई स्टाइल की रही और फिर बाद में इसका रंग रूप और बदलता रहा। इस पग में चक्कर लगाने की परंपरा भी अंग्रेज़ों ने ही शुरू करवाई। अंग्रेज़ों की वजह से ही सिखों ने अपनी दाढ़ी को बांधना भी शुरू किया था। अस्ल में, अंग्रेज़ी बंदूक चलाते समय खुली दाढ़ी में आग लगने की आशंका रहती थी इसलिए सिपाहियों को हिदायत थी कि वो दाढ़ी को ठोड़ी के पास बांधें। ये सिलसिला ऐसा चला कि आज भी कई सिख इस नियम का पालन करते हैं। 
अंग्रेज़ी राज से आज़ादी मिलने के बाद भारत में कई धर्मों ने अपनी पहचानों को लेकर विचार शुरू किया। हिंदुओं ने पगड़ी पहनना छोड़ा क्योंकि आज़ादी के समय दंगों में उन्हें सिख समझकर हमले का शिकार होना पड़ रहा था। वहीं, पाकिस्तान में मुस्लिमों ने भी पगड़ी पहनना छोड़ दी। भारत में जहां पगड़ी एक समय हर वर्ग की सामाजिक प्रतिष्ठा से जुड़ी रही थी, वहीं आज़ादी के बाद केवल सिखों ने इसे अनिवार्य ढंग से अपनाए रखा।

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