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- जैन धर्म 'जन धर्म' है.........
Posted by : achhiduniya
21 January 2015
राष्ट्रीय
चेतना के विकास में उसकी एक .....
जैन का अर्थ है जिन का अनुसरण-अनुगमन करने वाला,जैन शब्द जिन से बना है। जिन का अर्थ है जीतने वाला। जो अपनी इंद्रियों,
मानसिक विकारों, इच्छाओं, वासनाओं को जीतता है, वह जिन है। जिन कोई ईश्वरीय अवतार
नहीं है। अपितु काम-क्रोधादिक विकारों को जीतने वाला सामान्य मनुष्य ही है। जिनत्व
की प्राप्ति से पूर्व वे भी साधारण मनुष्य थे। हम जैसे साधारण प्राणी भी अपनी आध्यात्मिक
साधना द्वारा जिनत्व को उपलब्ध कर सकते है, प्रत्येक मनुष्य में
जिन बनने की शक्ति प्रच्छन्न रूप से विद्यमान है।
जैन धर्म एक प्राचीन धर्म है,
जिसके वातरशना मुनियों, केशियों, व्रात्य-क्षत्रियों के रूप में ऋग्वेद, श्रीमद्भागवत
में प्रचुर उल्लेख मिलते हैं। अपनी साधना के द्वारा उस प्रच्छन्न शक्ति की अभिव्यक्ति
ही जिनत्व है। जिन के अनुयायी ही जैन कहलाते हैं। जिन के चरण पर चलने वाला जो जितेन्द्रीय
है, वहीं जिन है। भावना और कार्य दोनों में शुचिता का नाम ही
जैनाचार है। हजारों वर्षो के प्रयोग व अनुभव से जैनाचार्यो ने कहा है कि जीवन में जिन
जीवन शैली पर श्रृद्घा और तदनुकूल जीवन पद्घति को अपनाकर जैन होने का अधिकार पाया जा
सकता है।
जैन धर्म विश्व का एक प्राचीन धर्म है, जिसकी एक स्वतंत्र
और मौलिक परम्परा है। इतिहासकारों ने भी अब इस तथ्य को स्वीकार कर लिया है कि भगवान
महावीर स्वामी जैन धर्म के मूल संस्थापक नहीं थे, वरन उनसे पूर्व
अनेक तीर्थंकर हुए जिन्होने जैन धर्म की व्याख्या की और जिसकी प्राणधारा को आगे बढ़ाया।जैनागम
में तीर्थकारों की संख्या चौबीस है और इतिहासकारों की नजर भी प्रथम तीर्थंकर भगवान
ऋषभदेव तक जाने लगी है। जैन धर्म की प्राचीनता के साथ ही इस बात को भी स्वीकार किया
गया है कि यह एक परम्परावादी धर्म न होकर पुरूषार्थ मूलक और प्रगतिशील धर्म है तथा
राष्ट्रीय चेतना के विकास में उसकी एक महत्तवपूर्ण भूमिका रही है।
विज्ञान के क्षेत्र
उसके परमाणुवादी सूक्ष्म चिंतन को कभी भुलाया नहीं जा सकता।अपनी स्वस्थ्य चिंतन प्रक्रिया
द्वारा अहिंसा के तत्व चिंतन को स्थापित किया है। व्यक्ति की लुप्त होती स्वाधीनता
और प्रतिष्ठा की रक्षा की और समाज को जीने की एक वैज्ञानिक कला दृष्टि प्रदान की है।
यह जगत को सुखद और आंनद प्रद बनाने वाला धर्म है। इसका चिंतन वैज्ञानिक है तथा तथ्यों
का प्रतिपादन तर्कसम्मत है। जैन धर्म सम्यकत्व औचित्य और उत्तमता पर बल देता है। जो
भी हो अपनी श्रेणी में सर्वोत्तम हो, जो भी हो अपनी जगह वास्तविक
हो और जो भी हो सत्य हो, ये जैन धर्म के प्रतिपादनों में अन्तर्मुक्त
प्रेरक तत्व हैं।
जैन धर्म कहता है- जो सत्य है उसे उसकी संपूर्ण सापेक्षाओं में ढूढों,
जो उचित है उसे कहो-करो और अन्ततः देखो कि सत्य तक तुम्हारे जीवन के
जहाज का लंगर डल गया है। इतने सबसे साथ जो सर्वोत्तम है, श्रेयष्कर
है उसे उत्कृष्ठ और निर्मल साधनों से प्राप्त कर किसी सुविधा के लिये सिद्घांतो का
समर्पण मत करो। रास्ता लम्बा भले ही हो, किन्तु अपावन न हो। उत्कृष्ठता
जहां भी हो, उसका वरण करो।वस्तुतः जैन धर्म 'जन धर्म' है। इसमें जीवन को ऊचां उठाने वाले दस धर्मो
का बड़ा विशद विवेचन हुआ है।
उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव,
उत्तम आर्जव, उत्तम सत्य, उत्तम शौच, उत्तम संयम, उत्तम तप,
उत्तम त्याग, उत्तम आकिंचन्य और उत्तम ब्रम्हचर्य।जैन
होने का अर्थजैन होना महत्वपूर्ण है, किंतु उसके अर्थों को अपने
जीवन की गहराईयों में उतारना, वैसा जीवन जीना एक परमश्रेष्ठ पुरूषार्थ
है। हम उस पुरूषार्थ के प्रति समर्पित रहे ऐसी मंगल कामना हम सबको एक दूसरे के लिए
करना चाहिये। जैन दर्शन की दार्शनिक पीठिका को समझना और उनको आचरण में उतारने की शक्ति
का नाम ही जैनत्व है।
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जय जिनेन्द्र |