Posted by : achhiduniya 28 March 2015

आप देना ही चाहते हैं तो बस इतना आश्वासन दे दीजिए ......

मित्रो प्रणाम .....जाने अंजाने मे हम एक गलती जरूर करते है वो ये की अपने आप को श्रेष्ठ और दूसरे को कम गुणी या निकक्मा समझते है इसके चलते हम संस्था ,कंपनी ,शासन – प्रशासन यहा तक की अपने देश को भी गलत साबित करने मे पीछे नही हटते । आपको एक सच्ची घटना से रुबरु कराते है। स्वामी रामतीर्थ एक बार  जापान की यात्रा पर थे। 


वहाँ विभिन्न शहरों में उनके कई कार्यक्रम थे। ऐसे ही एक कार्यक्रम में भाग लेने के लिए वे ट्रेन से जा रहे थे। रास्ते में उनकी इच्छा फल खाने की हुई। जब गाड़ी अगले स्टेशन पर रुकी तो वहाँ अच्छे फल नहीं मिले। इस पर स्वामीजी ने स्वाभाविक-सी प्रतिक्रिया कर दी कि लगता है कि जापान में अच्छे फल नहीं मिलते। उनकी यह बात एक जापानी सहयात्री युवक ने सुन ली, लेकिन उसने कहा कुछ नहीं। जब अगला स्टेशन आया तो वह फुर्ती से उतरा और कहीं से एक पैकेट में ताजे-ताजे मीठे फल ले आया। स्वामीजी ने उसे धन्यवाद दिया और कीमत लेने का आग्रह किया, लेकिन उस युवक ने मना कर दिया। 

                               

जब स्वामीजी ने कीमत लेने पर ज्यादा जोर दिया तो वह बोला कि मुझे कीमत नहीं चाहिए। यदि आप देना ही चाहते हैं तो बस इतना आश्वासन दे दीजिए कि अपने देश लौटकर किसी से यह मत कहिएगा कि जापान में अच्छे फल नहीं मिलते।  इससे हमारे देश की छवि खराब हो सकती है। उसकी भावना से स्वामीजी गदगद  हो गए। दोस्तो, अपने देश के प्रति इसी लगाव की बदौलत आज जापान जैसा एक छोटा-सा देश आर्थिक क्षेत्र में विश्व की एक शक्ति है। हमारे यहाँ भी इस तरह की भावना के लोग हैं, लेकिन केवल मुट्ठीभर। सोचें कि यदि यह भावना अधिकतर लोगों में आ जाए तो यह देश कहाँ पहुँच सकता है। 

लेकिन हमारे यहाँ तो ज्यादातर जापान से उल्टा होता है। जैसे कि यदि यही घटना किसी विदेशी संत के साथ भारत में घटी होती तो कोई युवक उन्हें अच्छे फल तो नहीं देता, बल्कि यहाँ और क्या-क्या अच्छा नहीं मिलता है, इस बात की जानकारी जरूर दे देता, फिर चाहे इससे देश की छवि कितनी ही खराब क्यों न हो जाए। दूसरी ओर, बहुत से लोग अक्सर अपनी कंपनी या संस्था की ही निंदा दूसरों के सामने करने लगते हैं। निंदा करते समय उन्हें इतना भी ध्यान नहीं रहता है कि ऐसा करके वे न केवल अपनी संस्था की छवि को नुकसान पहुँचा रहे हैं, बल्कि अप्रत्यक्ष रूप से वे अपनी छवि भी बिगाड़ रहे हैं, क्योंकि संस्था की छवि से उनकी छवि भी जुड़ी होती है। 


इस तरह वे उसी डाल को काट रहे होते हैं, जिस पर वे बैठे हैं 'यदि आप भी ऐसा करते हैं, तो जान लें कि आपके मुँह से आपकी कंपनी और प्रबंधन की निंदा सुनकर सामने वाले के मन में पहला विचार यही आता है कि यदि कंपनी घटिया है, तो आप दूसरी कंपनी में क्यों...? नहीं चले जाते। कहीं न कहीं खुद में भी कोई कमी होगी, तभी वहाँ टिके हैं। इसलिए यदि आपकी बात में सचाई भी है, तो भी समस्या का समाधान कंपनी स्तर पर करने का प्रयास करें, क्योंकि दूसरों के सामने बुराई करने से तो कोई हल निकलने से रहा। 



यदि आप लगातार अपनी कंपनी की छवि बिगाड़ते रहे, तो कोई दूसरी कंपनी वाला भी आपको अपने यहाँ नौकरी पर नहीं रखेगा, क्योंकि कोई भी कंपनी अच्छी कंपनी के लोगों को ही अपने यहाँ रखती है, घटिया कंपनी के लोगों को नहीं। यह बात जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी लागू होती है।  वह स्कूल या कॉलेज जहाँ आप पढ़ते हैं या पढ़ चुके हैं। आपने कभी सोचा है कि अधिकांश साक्षात्कारों में किन्हीं खास संस्थानों में पढ़े हुए लोगों को प्राथमिकता क्यों दी जाती है, क्योंकि उन संस्थानों की छवि को वहाँ से पढ़कर निकले छात्रों ने बिगाड़ा नहीं होता। 



इस तरह हम यह भूल जाते हैं कि बूँद-बूँद से घड़ा भरता है।  आपको अपनी एक छोटी-सी प्रतिक्रिया उतनी महत्वपूर्ण न लगे, लेकिन धीरे-धीरे ऐसी अनेक प्रतिक्रियाएँ मिलकर किसी संस्थान या देश की छवि को बनाती या बिगाड़ती हैं। अगर आप मे भी कुछ इस प्रकार की आदते है तो उसे बदलने का प्रयास करे जाने अंजाने हम अपनी ही छवि बिगाड़ते है। सोच बदले समाज ,प्रदेश , देश ,विदेश सब बदलेगा। 

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