Posted by : achhiduniya 13 April 2015

दलित से ङॉक्टर तथा भारत रत्न बनने तक का सफर........
            
रत्नागिरी जिल्हा कटहल,आम इस तरह के फलों के लिए प्रसिध्ध (फेमस) है।इसी जिले ने तिलक,साने गुरूजी जैसे महान मानवी रत्नों को जन्म दिया। रत्नागिरी के पास ही अंबावडे नामक खेडा है,इसी जगह रामजी सपकाल नामक सरदारी बाद्व्या जतिसे नगर विचार और आचरण से सुसंस्कृत एक व्यक्ति रहता था।


उम्र के १८ वे वर्ष में वह फ़ौज में  सैनिक बन गया शिक्षा की चाहत होने की वजह से नौकरी के साथ ही उन्होंने शिक्षा भी जारी रखी। फ़ौज (मेजर ) मुरवाडकर की बेटी भीमाबाई यह रंजिकी पत्नी थी। देखने में सुन्दर स्पष्ट वक्ता होने की वजह से उनका सब पर दब-दबा था। रामजी और भीमाबाई के दिन ख़ुशी में कट रहे थे। रामजी के भाई यानी भीमाबाई के देवर सन्यासी थे।उन्होंने भीमाबाई को महान,तेजस्विनी लड़का होगा यह भविष्यवाणी कि थी। सोमवार दिनाक १४ अप्रेल १८९१ वे वर्ष की वह मंगल धड़ी की पहर थी वो सूर्य-चन्द्र आदी ग्रहों के पवित्र मिलाप होनेवाला दिन था। 


इसके अलावा वह दिन भाग्य का और पुण्य का भी माना गया,इसी समय भीमाबाई को मध्य भारत के महू में पुत्र रतन की प्राप्ति हुई.बारवे दिन बालक का नाम भीमराव रखा गया।१९१३ में रामजी मेजर के ओहदे पर थे तब वह सैनिक सेवा से निवर्त हो गये,इसके बाद वह दापोली आए। भीमराव वह की शाला में पड़ने लगे,लेकिन शरारती होने की वजह से उनके झगडे मिटाना दिन ब दिन रामजी को भारी जाने लगा इसकी वजह से वे सतारा में रहने चले गए। 
भीमा का शरारती स्वभाव चला जाए इसी वजह से उसे कम्प हाइस्कुल में दाखिल किया गया। सतारा में रहना भीमाबाई को रास नही आ रहा था,बार-बार उनकी तबियत बिगड़ जाया करती थी। इसी वजह से उन्होंने स्थाई बिस्तर पकड लिया था,इसी में उन्होंने अपने प्राण त्याग दिए। उस समय भीमा केवल ६ वर्ष के थे। वर्ष १९०० में भीमराव सतारा के हाइस्कुल में पड़ने के लिए आए। अंग्रेजी शाला में प्रवेश होने की वजह से भीमराव बेहद खुश हो गए थे,लेकिन स्कुल के वातावरण और अपने पड़ाई किये हए कम्प के वातावरण में फर्क है। यह भीमा के होशियार मन ने जल्द ही जान लिया। आगे बच्चो की शिक्षा के लिए वे मुंबई आए यहा भीमा ने एल्फिन्स्टन हाइस्कुल में प्रवेश किया.जाती से अस्पर्श्य होने के कारण भीमा की इच्छा होते हए भी वह संस्क्रत की पढ़ाई नही कर पाए.पर्शियन भाष में उनका पहला स्थान था.


आनंद की पढ़ाई की प्रगति ज्यादा न होने की वजह से उसे नौकरी पर लगा दिया गया ,बाद में दोनों आनंद और भीमा का विवाह हो गया। विवाह के समय भीमा की उम्र चौदह बरस और उनकी पत्नी की उम्र नौ वर्ष थी। भीमा की शिक्षा के लिए रामजी ने अथक परिश्रम करने की ठानी थी। अपने बच्चे को प्रखर बुध्धि का जान कर ही रामजी ने भीमा को मुंबई भेजा। हिन्दू समाज की एक बेतुकी और क्रूरता पूर्ण प्रथा की वजह से उस समय अस्पर्श्यजाती मानी जाने वाली जाती में जन्म लेने की वजह से एल्फिन्स्टन हाइस्कुल में पढ़ाई करते वक्त कुछ लोगो ने उनका पल-पल अपमान किया लेकिन इसमें भी उनसे प्यार करने वाले केलुस्कर गुरूजी के प्रोत्साहन की वजह से और मार्ग दर्शन की वजह से १९०७ में भीमा अच्छी तरह से १० वी की परीक्षा में पास हो गए और बडोदा सरकार की छात्र्वर्ती प्राप्त कर एल्फिन्स्टन कॉलेज में प्रवेश किया.चाल के लोगो ने जोर-शोर से स्वागत व सम्मानित किया। 


भीमा के बौद्ध होने की वजह से उन्हें उचित मार्गदर्शन और मदद नही मिली.इसी परिस्थिति में एल्फिन्स्टन कॉलेज से १९१२ में वह बी ऐ में पास हो गए बडोदा के महाराजा के ऋण से मुक्त होने के उदेश्य से उन्होंने उनके पास नौकरी के लिए अर्जी की और उन्हें सयाजीराव गायकवाड के यहा नौकरी मिल गई,मगर पिता की तबियत ठीक ना होने की तार मिलते ही आम्बेडकर मुंबई चले गए। सूरत स्टेशन पर पिताजी के लिए बर्फी खरीद ली जाए इसलिए वे गाड़ी से उतरे तभी गाड़ी छुट गई,जिससे उन्हें घर पहुचने में देरी हो गई.पिता की आँखे बच्चे को देखने के लिए उत्सुक थी। 


बच्चे के आने की खबर से ही उन्होंने आँखे खोली अपने लाडले बेटे पर प्यार से हाथ फेरा और इस महान व्यक्तित्व ने आखरी साँस लेकर इस दुनिया से अलविदा ले ली.बडोदा के प्रागतिक राजे साहेब ने भीमा को छात्रव्रती देकर अमेरिका भेजा,वह केवल शिक्षा लेने अमेरिका आए है यह बात उन्होंने हमेशा याद रखी.किसी तपस्वी की तरह उन्होंने उपासना की.वह पढ़ाई में दिन के अठारह घंटे बिताते थे. १९१५ में उन्होंने एम.ऐ पूर्ण किया। इसके पश्चात उन्होंने दो-तीन प्रबंध लिखे.इसी श्रम के फल के रूप में वर्ष १९२४ में कोलम्बिया विद्यापीठ ने उन्हें "डाक्टर ऑफ़ फिलासाफी "यह पदवी दी।सरकारी कचहरी में उन्हें बड़ा ओहदा देने की बजाय २२५ रूपये में खड्डे घसने का काम करना पड़ रहा था.उनके नीचे के कर्मचारी भी उन्हें पानी हाथ में नही देते थे और उनकी टेबल पर दूर से ही फाइल फेक दिया करते थे। 

स्वाभिमानी भीमराव को यह बर्ताव पसंद नही था उन्हें इस बर्ताव से काफी दुःख हुआ इसलिए वह मुंबई वापस आ गए।इतना होने पर भी उन्होंने हिम्मत नही हारी थोड़ी कोशिशो के बाद सिंडेनहम कॉलेज में प्राध्यापक की जगह प्राप्त हो गई.पैसा जमा कर आगे की पढ़ाई को पूरा करने के लिए १९२० में वे लन्दन चले गए वह वे सुबह आठ बजे से शाम पाँच बजे तक विविध ग्रंथालयो में किताब पढ़ते और रात दस से दिन निकालने तक उनकी पढ़ाई शुरू रहती थी इसके फलस्वरूप १९२३ में लन्दन विद्यापीठ ने उन्हें डाक्टर ऑफ़ साइंस की पदवी दी। 

अस्पर्श समाज को स्वयं कुछ करने की इच्छा हो इस द्रष्टि से उन्होंने चैतन्य निर्माण करने के लिए उन्होंने अपने कार्यो की ओर कदम बढ़ाने की शुरुवात की इसकी पहली शुरुवात मतलब में उनका शुरू किया गया पाक्षिक मूकनायक था। इसके बाद म्हाड के तलब का पानी जो अस्प्रशयो को नही मिलता था। पानी मतलब जीवन ,वहीं उनसे छिन लिया गया और उन्होंने सत्याग्रह करने का फैसला किया। मार्च १९२७ को वह सत्याग्रही तालाब की ओर निकले  मानव का हक और निसर्ग की देन पानी उसे प्राप्त करने के लिए यह सब चल रहा था। ङॉ आंबेडकर सबसे आगे थे। 

अस्पर्श होने की वजह से मुंबई के कॉलेज में जिनका अपमान हुआ,यातनाए सहनकरनी पड़ी बड़ोदा के होटल में जिन्होंने मार खाई वह आंबेडकर सत्याग्रहियों के सेनापति के रूप में आगे जंच रहे थे। सभी तालाब के पास आ पहुचे। प्रथम आंबेडकर ने पानी का घुट पिया और बाकियों को पिने की छुट दी। इसी तरह आंबेडकर के कार्यो की प्रगति होने लगी .नासिक के कालाराम मंदिर में प्रवेश पाने के लिए वह निरंतर पाँच वर्ष लड़ते रहे और १९३५ में नासिक का कालाराम मंदिर अस्पर्शो के लिए खोल दिया गया। इसी काल में उन्होंने "बहिश्क्र्त भारत" मानक नियत कालीन की शुरुवात की। हमारे भारत देश में अंग्रेजो का राज था। 

फिर १५ अगस्त १९४७ भारत को स्वतन्त्रता मिली भारत के लोगो को विशिष्ठ पद्दति से राज करने आना चाहिए इसलिए भारत की स्वतंत्र राज घटना होना जरूरी हो गया इस द्रष्टि से भारतीय विद्वानों की एक तज्ञ समिति नियुक्त की गई ,जिसमे प्रमुख थे बरिस्टर आंबेडकर इतने बड़े कानून तज्ञ इस महात्मा का पूर्ण  जीवन बहोत ही बुरा बीता,आंबेडकर को कानून मंत्री नियुक्त किया गया। उन्होंने दिन रात मेहनत कर बड़े परिश्रम से अपने अन्दर की पूरी बुध्धिमानी दाव पर लगाकर फरवरी १९४८ में घटना लिखकर पूर्ण की इसलिए उन्हें भारतीय घटना का शिल्पकार कहा जाता है,फिर उन्होंने हिन्दू कोड बिल पास करा लिया। अस्पर्श्यो के लिए मुंबई में सिद्धार्थ महाविद्यालय और औरंगाबाद में मिलिंद महाविद्यालय शुरू किया।"पकता है वंहा बिकता नही "अपने पास के व्यक्ति के गुणों को हम नही जान पाते,दूर के व्यक्ति को इसकी परख होती है। 

इसलिए १ जून १९५२ को अमेरिका के कोलम्बिया विद्यापीठ ने उन्हें डा ऑफ़ ला यह पदवी देकर गौरन्वित किया आंबेडकर ने लोकशाही का पुरस्कार करने वाले स्वतन्त्रता ,समता ,बन्धुता पर कई ग्रन्थ लिखे,भाषण दिए व स्वंम की दलितों के प्रति जो भूमिका है उसे स्पष्ट किया उनकी प्रेरणा से शालाए,प्रयोग शाला तो निकली ही लेकिन महाविद्यालय भी निकले। शिक्षा ,राजकारण ,समाज कल्याण ,अर्थकार्ण,इन सभ  में उन्होंने अपने तर्कशुद्ध और स्वतंत्र विचार रखे। दलित समाज में जागरूकता फैलती गई तब उन्हें ज्ञान का महत्व समझा। आज कई दलित समाज में विचारवंत की मान्यता प्राप्त कर चुके,इसके पीछे बबशेब की प्रेरणा है समाज ने विविध प्रकार से आंबेडकर के प्रति आदर को व्यक्तकिया है आज उनके नाम के कई विद्यालय ,महाविद्यालय और विद्यापीठ कार्यरत है। 
उनका हिन्दू धर्म के पाखंडी धर्म का विरोध था। भारत देश से उन्हें बहोत प्यार था इसी वजह से हिन्दू धर्म से किसी और धर्म में जाने का विचार करते हुए भी भारत में ही तैयार हए,आंबेडकर ने धर्मान्तर की धोषणा की ,नागपुर शहर में अपने लाखो अनुयाइयो के साथ १४ अक्टोबर १९५६ में बौद्ध धम्म की दीक्षा ली। बाबासाहेब का व्यक्तित्व दलितों को भगवान के समान लगे इतना बड़ा था। ङॉ बाबासाहेब आंबेडकर का पूरा जीवन परिश्रम (कष्ट)में गया,जाती से अस्पर्श्य होने की वजह से बचपन में लोगो ने उनकी अहवेलना की मगर उनको जिस समानता के बर्ताव की जरूरत थी। वह नही मिली अन्य लोगो की तरह उन्हें भी समझा जाए यह उनकी अपेक्षा (उम्मीद )थी। लेकिन उसे पूरा करने के लिए जिन्दगी भर कई बातो से लड़ना पड़ेगा,कई मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा। पैसो की कमी के कारण इस पर रास्ता ढ़ूँढ़ना पड़ेगा। 
इसके लिए उन्होंने कठिन परिश्रम किया। धुप -छाव की परवाह नही की सहज ही है की उनका स्वास्थखराब होने लगा,रक्तचाप ,मधुमेह जैसी बीमारियों ने उनके शरीर को खोखला कर दिया।
दलित समाज के लिए निरंतर कार्य करने वाले और सीखो,संगठित हो,संघर्ष करो,यह मूलमंत्र देने वाले मानव धम्म के उपासक अपने कर्तव्यो की स्म्रति को पीछे छोड़ते हए ६ दिसम्बर १९५६ में इस दुनिया से चले गए। मरनोप्रान्त उन्हें "भारतरत्न" यह ख़िताब भारत सरकार ने दिया ऐसे इस महान पुरुष के महानिर्वाण दिन पर उनकी स्म्रति को विनम्र अभिवादन व कोटि -कोटि नमन,शत -शत प्रणाम 
:=:श्री प्रवीण मोरेश्वर बागडे (स्विय सहायक ,महाराष्ट्र पशु व मत्स्य विज्ञान विद्यापीठ नागपुर )

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