Posted by : achhiduniya 02 May 2016



आज के दौर में गर्मी से छुटकारा पाने के आधुनिक साधन उपलब्ध हैं। लेकिन एक जमाना ऐसा भी था, जब कूलर, पंखे, ए.सी. का आविष्कार नहीं हुआ था। तब लोग गर्मियों में प्राकृति स्थलों पर जाया करते तथा पेडों की छोटी टहनियों को तोड कर हाथ से हिलाया करते थे। इससे गर्मी व पसीने से राहत मिल जाया करती थी। प्राचीन काल में कई राजाओं ने अपनी राजधानी में गर्मी से बचने के लिए ठंडे स्थलों का निर्माण भी किया था। जिन्हें ठंडी झरी, जल कुंड, बावडी, शीतल बगीचे आदि नामों से जाना जाता था। ऐसे कई स्थल आज भी हमारे देश के कई भागों में मौजूद हैं। कुछ तो खंडहर अवस्था में हैं और कुछ सार संभाल के कारण आज भी प्राचीन ठंडे स्थलों के नाम से चर्चित हैं। जैसे कश्मीर का शालीमार बगीचा, जयपुर का हवामहल व हिमाचल के प्राकृतिक स्थलों पर बने सैकडों देवालय आदि ऐसे स्थलों पर पहुंचकर सचमुच गर्मी का अहसास नहीं होता है।
संसार में सर्वप्रथम पंखे का आविष्कार एक जापानी भिक्षुक ने किया था। इसे खजूर के पत्तों से बुनकर तैयार किया था।  हाथ में लेकर हिलाने से शरीर को ठंडी हवा का अहसास होता था तथा पसीना भी सूख जाया करता था। भिक्षुक ने इस पंखे को तत्कालीन जापानी सम्राट को उनके जन्मदिन पर भेंट किया था। यह नायाब तोहफा पाकर सम्राट बेहद प्रसन्न हुए और उन्होंने भिक्षुक के माध्यम से अपने राजघराने के लिए सैकडों पंखे भी बनवाये थे। अपने जन्म दिन के तोहफे में मिले इस पंखे को सम्राट ने शाही चीजों की श्रेणी में शामिल कर लिया। प्रकृति के पत्तों से उपजा यह पंखा पूर्णतया प्राकृतिक था।  इस पंखे के आधार पर ही कई तरह के पंखों की रचना भी होने लगी। इसके बाद जापान में मयूर पंख के पंखे भी बनने लगे। जो काफी लोकप्रिय हुए। घर आया मेहमान जब विदा होता तो उसे मयूर पंख का पंखा भेंट किया जाता। लेकिन मिस्त्र में पंखे भी धार्मिक दृष्टि से देखे जाने लगे। वहां आठवीं सदी में मंदिरों में पंखोंपर कई देवी देवताओं के चित्र बनाए गए। इन चित्र बने पंखों को मंदिरों की दीवारों पर टांका जाता। मंदिर में जब भक्त दर्शन करने आते तब पंखे को उतार कर हवा कर एक झोंका लिया करते। 
उस समय भक्तों का विश्‍वास था कि ये हवा स्वर्ग से भगवान ने भेजी है। नौंवीं शताब्दी में चीन में पंखों का प्रचलन काफी लोकप्रिय रहा। वहां पर महिलाएं अपने घरों में पक्षियों के रंग बिरंगे परों से पंखे बनाकर रखती थीं। वहां पंखों पर कलाकारी एवं चित्रकारी करना शुभता का प्रतीक समझा जाता था। 12 वीं सदी में ईसाइयों ने पंखों का प्रयोग धार्मिक समारोह के लिए किया। सोने चांदी के बने पंखे पादरी लोग अपने हाथों में लिए लोगों को बारी बारी से दिखाया करते। मध्यकाल के शासकों के दरबार में सिंहासन के ऊपर बडे-बडे झालरदार पंखे लटके रहते, जिन्हें खूबसूरत दासियां उनमें लगी रस्सी को बारी बारी से खींचकर हिलाया करतीं। इससे दरबार में ठंडी हवा के झोंके इधर उधर मंडराने लगते। 16 वीं सदी में मलमल और साटन की झालरों वाले पंखे भी बनाए जाने लगे। चमत्कारी मंदिरों में हाथी दांत के पंखे बनाकर मूर्तियों पर डुलाए जाते। 
                                             
पुराणों एवं धर्मग्रंथों पर डुलाए जाने वाले पंखे जब उस समय बनकर तैयार हुए तो वे चंदर या चवर  कहलाने लगे। इन्हें सफेद गाय की पूंछ के बालोंसे बनाया जाता है। लेकिन 17 वीं सदी के अंत में ब्रिटेन के एक वैज्ञानिक ने एक ऐसा पंखा तैयार किया जो पेट्रोल से चलता था। उसके बाद 18 वीं शताब्दी के मध्य र्जमन के 'रिखोन' नामक वैज्ञानिक ने बिजली से चलने वाला पंखा बनाकर पंखों की दुनिया में एक नया कीर्तिमान स्थापित किया। पंखे के बाद कूलर व फिर ए.सी. के आविष्कार से गर्मियों में काफी ठंडक मिलने लगी। - 

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  1. बहुत ही रोचक जानकारी के लिए धन्यवाद

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